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Dec 8, 2021

भगवद गीता के बारे में | Bhagavad Geeta | श्रीमद भगवद गीता | Buy Bhagavad Gita online

भगवद्गीता के बारे में 


हिन्दू पंचांग के अनुसार, मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है। 
इस बार ये पर्व 14 दिसम्बर 2021 मंगलवार , को है। 
एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध शुरू होने से पहले योगीराज भगवान श्रीकृष्ण ने 18 अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।


श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। 
चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा। 
भगवद्गीता में कई विद्याओं का वर्णन है, जिनमें चार प्रमुख हैं- अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्म विद्या। माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है।
साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है। 
ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहंकार और गर्व के विकार से बचता है। 
ब्रह्म विद्या से अंतरात्मा में ब्रह्मभाव को जगाता है। 
गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन (जन्म-मरण) से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है। गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।

स्वयं भगवान ने दिया है गीता का उपदेश

विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती। 
हिंदू धर्म में भी सिर्फ गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है, क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है इसीलिए कहा गया है की - या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।
श्रीगीताजी की उत्पत्ति धर्मक्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को हुई थी। 
यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए है। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है।


इसके छोटे-छोटे 18 अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश है, जो मनुष्य मात्र को नीची से नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।

निष्काम कर्म करने की शिक्षा देती है गीता 


महाभारत के अनुसार, जब कौरवों व पांडवों में युद्ध प्रारंभ होने वाला था। तब अर्जुन ने कौरवों के साथ भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महानुभावों को देखकर तथा उनके प्रति स्नेह होने पर युद्ध करने से इंकार कर दिया था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, जिसे सुन अर्जुन ने न सिर्फ महाभारत युद्ध में भाग लिया अपितु उसे निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया। 
गीता को आज भी हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी। वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण कलियुग के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। कुछ लोग गीता को वैराग्य का ग्रंथ समझते हैं जबकि गीता के उपदेश में जिस वैराग्य का वर्णन किया गया है वह एक कर्मयोगी का है। कर्म भी ऐसा हो जिसमें फल की इच्छा न हो अर्थात निष्काम कर्म।
गीता में यह कहा गया है कि अपने धर्म का पालन करना ही निष्काम योग है। इसका सीधा अर्थ है कि आप जो भी कार्य करें, पूरी तरह मन लगाकर तन्मयता से करें। फल की इच्छा न करें। अगर फल की अभिलाषा से कोई कार्य करेंगे तो वह सकाम कर्म कहलाएगा। गीता का उपदेश कर्मविहीन वैराग्य या निराशा से युक्त भक्ति में डूबना नहीं सिखाता, वह तो सदैव निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है।

इस प्रकार श्रीमद भगवद गीताजी भारतीय संस्कृति का समग्र मानवजाति को एक बेहतरीन तौफा है यह कहना गलत नहीं होगा |

| धन्यवाद  |

Thank You, Keep Reading. 
#Sanskritwala

Nov 6, 2021

हिन्दुओं के रीति रिवाज तथा मान्यताएं | Hindu Rights Rituals Customs and Traditions | Hindu Manyatae

हिन्दुओं के रीत रिवाज तथा मान्यताए 

हेल्लो डिअर रीडर्स !

आज हम एक अनूठे पुस्तक के बारे में जानेंगे | इस पुस्तक का नाम है हिन्दुओ के रीत रिवाज तथा मान्यताए | दोस्तों यह पुस्तक हिन्दुओ के रीत रिवाज एवं मान्यताए अंग्रेजी में भी उपलब्ध है जिसका नाम है Hindu Rights Rituals Customs and Traditions.  हिन्दुओ के रीत रिवाज एवं मान्यताए पुस्तक में हिन्दूओ के सदीओ पुराने जो रीत रिवाज एवं मान्यताए है इसकी धार्मिक एवं पौराणिक आधार पे चर्चा की गई है | 

डॉ. चंद्रप्रकाश गंगराडे द्वारा लिखित यह पुस्तक सभी हिन्दुओ के पास होनी चाहिए | यह पुस्तक हिन्दुओ के रीत रिवाज तथा मान्यताए में निम्नलिखित विषयो का उल्लेख किया गया है | 

  • सर्व प्रथम गणेशजी का पूजन क्यों किया जाता है ?
  • पारद शिवलिंग एवं शालिग्राम पूजन क्यों ?
  • हनुमानजी को सिन्दूर क्यों चढ़ाया जाता है ?
  • सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण के समय भोजन क्यों नहीं करना चाहिए ?
  • गंगा इतनी विशेष नदी क्यों है ?
  • हिन्दू धर्ममे संस्कारों का क्या महत्व है ?
  • गर्भाधान संस्कार कायो करना चाहिए ?
  • यज्ञोपवीत संस्कार क्यों करना चाहिए ?
  • सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ?
  • शिखा का क्या महत्व है ?
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  • शौच के समय जनेऊ कान पे लपेटना क्यों जरुरी है ?
  • मृतक का तर्पण क्यों करना चाहिए ?
  • विवाह में सात फेरे क्यों ?
  • सगोत्र विवाह करना वर्जित क्यों है ?
  • पूजा से पहले स्नान की क्या आवश्यकता है ?
  • ब्राह्ममुहूर्त में उठने के फायदे ?
  • पूजा पाठ में दीपक जलाना क्यों आवश्यक है ? 
  • पुनर्जन्म की मान्यता में विश्वास क्यों ?
  • शुभ कार्यो में पूर्व दिशा में ही मुख क्यों रखते है ?
  • पूजा में नारियल क्यों प्रयोग किया जाता है ? 
  • देवताओं की मूर्ति की परिक्रामा क्यों की जाती है ?
  • जल अर्घ्य क्यों देना चाहिए ?
  • तुलसी का विशेष महत्व क्यों ?
  • पीपल के पेड़ का पूजन क्यों किया जाता है ?
  • तिलक क्यों किया जाता है ?
  • गायत्री मंत्र की सब से अधिक मान्यता क्यों है ?
  • यज्ञ में आहुति के साथ स्वाहा क्यों बोलते है ?
  • मंत्रो की शक्ति में विश्वास क्यों करे ?
  • ब्राह्मण को ही सर्वाधिक महत्व क्यों ?
  • जाती पाती का भेदभाव अनुचित क्यों है ?
  • मंदिर में घंटा क्यों बजाते है ?
  • सत्यनारायण की कथा का महत्व क्या है ? 
  • सुन्दर काण्ड का धार्मिक महत्व क्या है ?
  • दीपावली पर लक्ष्मी पूजन क्यों ?
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और इस के जैसे ही कई प्रश्न जो हमारे मन मस्तिष्क में घूमते रहते है इस के शास्त्रिक्त और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से इस पुस्तक में बहोत ही अच्छा समजाया गया है | 

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Sep 22, 2021

Gayatri Mantra | Gayatri Mantra Meaning | Sanskrit Mantra Meaning

गायत्री की महिमा


वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों आदि सभी शास्त्रों में गायत्री मन्त्र के जप का आदेश दिया है। यहां गायत्री जप के सम्बन्ध में 'देवी भागवत' के ये श्लोक देखिये- 

गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदै: समीरिता।
यया विना त्वध: पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा।।८९।।

तावता कृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि।
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात्।।९०।।

"गायत्री ही की उपासना सनातन है। सब वेदों में इसी की उपासना और शिक्षा दी गई है, जिसके बिना ब्राह्मण का सर्वथा अध:-पतन हो जाता है।।८९।। 
द्विजमात्र कि लिए इतने से ही कृतकृत्यता है। अन्य किसी उपासना और शिक्षा की आवश्यकता नहीं। गायत्रीमात्र में निष्णात द्विज मोक्ष को प्राप्त होता है।।९०।।"

गायत्री-मन्त्र को जो गुरु-मन्त्र कहा गया है, तो इसमें विशेष तथ्य है। चारों वेदों में इसका वर्णन है। 
ऋग्वेद में ६/६२/१० का मन्त्र गायत्री मन्त्र ही है। सामवेद के १३/३/३ उत्तरार्चिक में और यजुर्वेद में दो-तीन स्थानों में गुरुमन्त्र का आदेश है। ३/३५, ३०/२ और ३६/३ पर अथर्ववेद में तो यह सारा रहस्य ही खोल दिया है कि यह वेद-माता, गायत्री-माता, द्विजों को पवित्र करनेवाली, आयु, स्वास्थ्य, सन्तान, पशु, धन, ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस् देनेवाली और ईश्वर दर्शन करानेवाली है। छान्दोग्योपनिषद् ने भी इसकी महिमा का गायन किया है।
बादरायण के ब्रह्मसूत्र १/१/२५ पर शारीरिक भाष्य में श्री शंकराचार्य जी ने लिखा है,"गायत्री-मन्त्र के जप से ब्रह्म की प्राप्ति होती है।"

भगवान् मनु ने यह आदेश दिया है-"तीन वर्ष तक साधनों के साथ गायत्री का जप करते रहने से जप-कर्त्ता को परब्रह्म की प्राप्ति होती है।"

योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रित:।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत: खमूर्तिमान्।। -मनु० २/८२

इसी प्रकार महाभारत के भीष्मपर्व ४/३८ में और मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के अन्य श्लोकों में भी गायत्री-मंत्र की महानता प्रकट की गई है।

महर्षि व्यास का कथन है,"पुष्पों का सार मधु है, दूध का सार घृत है और चारों वेदों का सार गायत्री है। गंगा शरीर के मल धो डालती है और गायत्री-गंगा आत्मा को पवित्र कर देती है।"
अत्रि ऋषि का यह कथन बड़ा मार्मिक है-"गायत्री आत्मा का परम शोधन करनेवाली है।"

महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज ने 'सत्यार्थप्रकाश' के तृतीय समुल्लास में मनु भगवान् का एक श्लोक देकर यह आदेश किया है-
"जंगल में अर्थात् एकान्त देश में जा, सावधान होकर जल के समीप स्थित होके नित्य-कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण, अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करे, परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।"

चरक ऋषि ने 'चरक-संहिता' में यह कहा है कि "जो ब्रह्मचर्य-सहित गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजा (वृक्ष से अभी-अभी तोड़े हुए) फलों के रस का सेवन करता है, वह दीर्घ-जीवी होता है।"

य एतां वेद गायत्रीं पुण्यां सर्वगुणान्विताम्।
तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ स लोके न प्रणश्यति ।।  -महाभारत, भीष्मपर्व अ० ४ श्लोक १६

पं० रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' कृत अनुवाद- "भरतश्रेष्ठ! जो लोक में स्थित इस सर्वगुणसम्पन्न पुण्यमयी गायत्री को यथार्थ रूप से जानता है वह कभी नष्ट नहीं होता है।"

चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषत:।
करोति सततं शान्तिं सावित्रीमुत्तमां पठन्।। - महाभारत, अनुशासनपर्व, अ० १५० श्लोक ७०

"जो उत्तम गायत्री मन्त्र का जप करता है, वह पुरुष चारों वर्णों और विशेषत: चारों आश्रमों में सदा शान्ति स्थापन करता है।"

या वै सा गायत्रीयं वाव सा येयं पृथिव्यस्यां हीद्ं सर्व भूतं प्रतिष्ठितमेतामेव नातिशीयते।  -छान्दोग्योपनिषद् ३/१२/२

"निश्चय से जो पृथिवी है, निश्चय यह वह गायत्री है। जो यह इस पुरुष में शरीर है। इसी में ये प्राण प्रतिष्ठित है। इसी शरीर को ये प्राण नहीं लांघते।"
'गायत्री-मंजरी' में तो गायत्री ही को सब-कुछ वर्णन कर दिया गया है और लिखा है-

भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधै:।
लोक आश्रयणेनामुं सर्वमेवाधिगच्छति।।२९।।

"विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है, संसार इसका आश्रय लेकर सब-कुछ प्राप्त कर लेता है।"
स्मृतियों में गायत्री का वर्णन कुछ इस प्रकार से है-

ब्रह्मचारी निराहार: सर्वभूतहिते रत:।
गायत्र्या लक्षजाप्येन सर्वपापै: प्रमुच्यते।। -संवर्तस्मृति:, श्लोक २१९

जो ब्रह्मचारी निराहार सब प्राणियों के कल्याण के लिए गायत्री को एक लाख जपता है वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।

गायत्रीं यस्तु विप्रो वै जपेत नियत: सदा।
स याति परमं स्थानं वायुभूत: खमूर्तिमान्।।
                   -संवर्तस्मृति:, श्लोक २२२

जो ब्राह्मण जितेन्द्रिय होकर सर्वदा गायत्री का जप करता है वह वायु और आकाशरूप हो परमस्थान (मोक्ष) को प्राप्त करता है।

सहस्त्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम्।
गायत्रीं यो जपेद्विप्रो न स पापेन लिप्यते।।
                   -अत्रिस्मृति:, अ० २, श्लोक ९

जो ब्राह्मण गायत्री को १११० बार जपता है वह पापों से लिप्त नहीं होता।

सर्वेषां जप्यसूक्तानामुचां च यजुषां तथा।
साम्नां वैकाक्षरादीनां गायत्रीं परमो जप:।।
            -बृहत्पराशरस्मृति:, अध्याय ३, श्लोक ४

जप करने योग्य सब सूक्तों में वैसा ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के और एक अक्षर आदि के मध्य में गायत्री जप श्रेष्ठ है।
एकाक्षरेअपि विप्रस्य गायत्र्या अपि पार्वति।
                 -गायत्री तन्त्रम् (तृतीय पटल:)

गायत्री के एक अक्षर को जाननेवाले ब्राह्मण को नमस्कार है।
गायत्रीरहितो विप्र: स एव पूर्वकुक्कुरः ।।१४६।।
                -गायत्रीतन्त्रम् (तृतीय पटल:)

गायत्रीमन्त्र से रहित ब्राह्मण प्रत्येक जन्म में कुक्कुर होकर हड्डी खाता है।
पुराणों ने भी गायत्री की महिमा का गुणगान गाया है-
तावताकृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि।
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात्।।९०।।
      -श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे, द्वादशस्कन्धे, अध्याय ८

केवल गायत्रीमन्त्र को जानने में दक्ष द्विज मोक्ष को प्राप्त होता है। इसके जप करने से ही सब कर्त्तव्य पूर्ण हो जाते हैं। द्विज को दूसरे कर्मों की अपेक्षा नहीं है।
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायाम: परन्तप:।
सावित्र्यास्तु परन्नास्ति मौनात् सत्यं विशिष्यते।।
               -अग्निपुराणे, २१५ अध्याय, श्लो० ५

एकाक्षर (ओ३म्) पर ब्रह्म है। प्राणायाम परम तप है। सावित्री (गायत्री) से उत्तम दूसरा मन्त्र नहीं है, मौन से सत्यवाणी श्रेष्ठ है।
गयकं त्रायते पाताद् गायत्रीत्युच्यते हि सा।
  -श्री शिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायाम् अ० १५ श्लोक १६

गान करनेवाले का पाप से रक्षा करती है, इससे यह गायत्री कहलाती है।
गायत्री छन्दसां माता माता लोकस्य जाह्नवी।
उभे ते सर्वपापानां नाशकारणतां गते।।६३।।
            - नारद-पुराण अध्याय ६
ऋ० कु० रामचन्द्र शर्मा सम्पादक 'सनातनधर्म पताका' कृत अनुवाद-
गायत्री छन्दों की माता है और गंगा लोकों की माता है, ये दोनों सब पापों के नाश की कारण हैं।

गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसू:।
गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते।
       -स्कन्दपुराणम् ४ काशीखण्डे अ० ९, श्लोक ५३
गायत्री वेद की माता व गायत्री ब्राह्मणप्रसू: है। यह शरीर की रक्षा करती है इसलिए इसे गायत्री कहते हैं।

श्री पं० मदनमोहन जी मालवीय कहा करते थे कि "गायत्री-मन्त्र एक अनुपम रत्न है। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है और आत्मा में ईश्वर का प्रकाश आता है। गायत्री में ईश्वर-परायणता का भाव उत्पन्न करने की शक्ति है।"
माण्डले (बर्मा) जेल की काल-कोठरी में बैठकर 'गीता-रहस्य' लिखने वाले बाल गङ्गाधर तिलक ने लिखा था- "गायत्री मन्त्र के अन्दर यह भावना विद्यमान है कि वह कुमार्ग छुड़ाकर सन्मार्ग पर चला दे।"
महात्मा गांधी तो गायत्री-मन्त्र के निरन्तर जप को रोगियों तथा आत्मिक उन्नति चाहने वालों के लिए बहुत उपयोगी बताया करते थे।

महर्षि स्वामी दयानन्द जी के जीवन में कई बार ऐसा हुआ कि उन्होंने चित्त को एकाग्र तथा बुद्धि को निर्मल बनाने के लिए गायत्री-मन्त्र का जप बतलाया। इतना बड़ा महत्त्व रखनेवाला यह गुरु-मन्त्र है।
गायत्री-मन्त्र यह है-
ओ३म् भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।

।।ओ३म्।।

Sep 18, 2021

गणित शास्त्र के विश्व के सबसे प्राचीन विद्वान - स्वामि ज्येष्ठदेव

 स्वामि ज्येष्ठदेव 

प्राचीन भारत के गणित विद्या के प्रखर पण्डित विद्वान स्वामि ज्येष्ठदेवजी (Swami Jyeshth Dev) के बारे मे आज बात करनी है ।

हमे न्यूटन Newton का नाम पता है परंतु स्वामी ज्येष्ठदेव या माधवन (Madhavan) का नही, क्यों कि हमे बचपन मे ही सिर्फ न्यूटन के बारे में पढ़ाया गया है । अभी तक हमे यही पढ़ाया गया है कि न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक ही केल्क्युलस , खगोल विज्ञान और गुरुत्वाकर्षण के जनक है । 
लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सभी विज्ञानियों से कई साल पूर्व पंद्रहवीं सदी में दक्षिण भारत के स्वामी ज्येष्ठदेव ने ताड़पत्रों पर गणित के ये तमाम सूत्र लिखे है । 
इन मे से कुछ सूत्र ऐसे भी है जो उन्हों ने अपने गुरुओं से सीखे थे । यानी गणित शास्त्र का यह ज्ञान उन से पहले भी प्रचलित था लेकिन लिखित रूप में नही था । 

"मैथेमेटिक्स इन इंडिया" पुस्तक के लेखक किम प्लाफकर लिखते है कि, "तथ्य यही है कि सन 1660 तक यूरोप में गणित या केल्क्युलस कोई नही जानता था । जेम्स ग्रेगरी सबसे पहले गणितीय सूत्र लेकर आये थे । 

जब कि सुदूर दक्षिण भारत के एक छोटे से गाँव मे स्वामी ज्येष्ठदेव ताड़पत्रों पर केल्क्युलस , त्रिकोणमिति के ऐसे ऐसे सूत्र और कठिनतम गणितीय व्याख्या को संभवित हल के साथ लिखकर रखे थे, जो पढ़कर हैरानी होती है ।

इस प्रकार चार्ल्स व्हिश नामक गणितज्ञ लिखते है कि....
"मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि शून्य और अनंत कि गणितीय श्रृंखला का उद्गम स्थान केरल का मालाबार क्षेत्र है ।" 

स्वामी ज्येष्ठदेव द्वारा लिखे गए इस ग्रंथका नाम है "युक्तिभाष्य" , जिसके पंद्रह अध्याय और सेंकडो पृष्ठ है ।
यह पूरा ग्रंथ वास्तव में चौदहवीं शताब्दी में भारत के गणितीय ज्ञान का एक संकलन है जिसे संगम ग्राम के तत्कालीन प्रसिद्ध गणितज्ञ स्वामी माधवन की टीम ने तैयार किया है ।
स्वामी माधवन का यह कार्य समय की धूल में दब ही जाता यदि स्वामी ज्येष्ठदेव जैसे शिष्यो ने उसे ताड़पत्रो पर उस समय की द्रविड़ भाषा (जो अब मलयालम है)  में न लिखा होता । 
इसके बाद लगभग 200 वर्षो तक स्मृति परंपरा बहुत ही प्रचलित थी इसलिये सम्पूर्ण लेखन कर के एक रिकॉर्ड रखने में लोग विश्वास नही करते थे । 
जिसका नतीजा हमे आज भुगतना पड़ता है ।
अमूमन संस्कृत भाषा के प्राचीन आविष्कार हमे पश्चिमी आविष्कार के रूप में परोसा जा रहा है और हम उत्साहित हो कर के मजे भी ले रहे है ।

ज्योर्जटाउन विश्व विद्यालय के प्रोफेसर होमर व्हाइट लिखते है कि सम्भवतः पंद्रहवी सदी का गणित का यह ज्ञान धीरे धीरे इसलिए खो गया क्यो की कठिन गणितीय गणनाओं का अधिकांश उपयोग खगोल विज्ञान एवं नक्षत्रोकि गति इत्यादि के लिए होता था । सामान्य जनता के लिए यह अधिक उपयोगी नही था । इस के अलावा जब भारत के उन ऋषियों ने दशमलव (Decimal) के बाद ग्यारह अंको तक कि गणना एकदम सटीक निकाल ली थी , इसलिए अब गणितज्ञों के पास अब करने के लिए कुछ बचा ही नही था । 
ज्येष्ठदेव लिखित इस ज्ञान के लगभग लुप्तप्राय होने के सौ वर्षों के बाद पश्चिमी विद्वानों ने इसका अभ्यास 1700 से 1830 के बीच किया । चार्ल्स व्हिश ने "युक्तिभाष्य" से संबंधित अपना एक पेपर 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एन्ड आयरलैंड' की पत्रिका में छपवाया ।

चार्ल्स व्हिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मालाबार क्षेत्र में काम करते थे जो आगे चलकर जज भी बने । लेकिन साथ ही समय मिलने पर चार्ल्स ने भारतीय ग्रंथो का पठन मनन जारी रखा । व्हिश ने ही सब से पहले यूरोप को सबूतों के साथ "युक्तिभाष्य" के बारे में बताया था। वरना इससे पहले यूरोप के सभी विद्वान भारत की किसी भी ज्ञान या उपलब्धि को नकार देते थे । और भारत को साँपो, उल्लुओं और घने जंगलों वाला खतरनाक देश ही मानते थे । 
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक वरिष्ठ कर्मचारी जॉन वारेन ने एक जगह लिखा है कि "हिन्दुओं का ज्यामितीय और खगोलीय ज्ञान अद्भुत था । यहा तक कि ठेठ ग्रामीण इलाकों के अनपढ़ व्यक्ति को मैने कई कठिन गणितीय गणनाएं मुंहजबानी करते देखा है ।"

साभार - डॉ जयेन्द्र नारंग 

Mar 18, 2021

वेदो और स्त्री अध्ययन

स्त्रियों को वेद अध्ययन करना चाहिए या नही इस के बारे में मूर्धन्य विद्वान प्रो० उमाकान्त उपाध्याय महोदयजी बड़ी विनम्रता से बता रहे है ।
वे पूछते है कि -

'किस वेद में स्त्रियों और शूद्रों के वेदाधिकार का निषेध है ?'

हम बड़ी नम्रतापूर्वक इन धर्माचार्यों से पूछना चाहते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों संहिताओं में कहीं एक भी मन्त्र या मन्त्रांश ऐसा दिखा दीजिए जो महिलाओं और शूद्रों के वेदाध्ययन का निषेध करता हो ?

महिला या पुरुष नहीं अपितु मानवमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार है।  मध्यकाल में जब बहुत प्रकार के अनार्ष मिथ्या और साम्प्रदायिक मतवाद प्रचलित होने लगे तो कर्मकाण्ड के अनार्ष ग्रन्थों में 'स्त्री शूद्रौ न वेदमधीयाताम ' और 'स्त्री शूद्रद्विजबन्धूनाम् त्रयी न श्रुतिगोचरा' जैसी उक्तियाँ और विधान प्रचलित हुये । यह भारतीय संस्कृति और वैदिक परम्परा का अन्धकारपूर्ण युग था । वेद मनुष्य मात्र के लिये है । वेद परमेश्वर की वाणी हैं । जैसे पृथ्वी, जल, वायु, सूर्य, आकाश परमेश्वर निर्मित है और मनुष्यमात्र के लिये है, उसी प्रकार वेद भी परमेश्वर की वाणी होने के कारण मनुष्यमात्र के लिये है। 

प्रसिद्ध वेदोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र का प्रमाण देकर कहा -

यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः। 
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय च स्वाय चारणाय॥"
अर्थात् – परमेश्वर उपदेश करते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिये इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश करता हूँ वैसे सब मनुष्य किया करें । इसमें प्रजनेभ्यः शब्द तो है ही वैश्य, शूद्र और अति शूद्र आदि की गणना भी आ गई है । यह बड़ा सुस्पष्ट प्रमाण है । वेद के विद्वानों ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के इस अद्भुत प्रमाण का हृदय खोल कर देश और विदेश में स्वागत किया । उस अन्धकार युग में यह वेद का सूर्यवत् प्रकाश था।

कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध वेद विद्वान् श्री सत्यव्रत सामश्रमी ने अपने अति सम्मानित ग्रन्थ "ऐतरेयालोचन'' में लिखा है कि स्वामी दयानन्द ने मनुष्य मात्र के वेदाधिकार में साक्षात् वेदमन्त्र का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है ।

विश्व विख्यात विचारक और समालोचक रोमा रोलाँ ने स्वामी दयानन्द को यह कहकर श्रद्धांजलि दी है कि सचमुच वह दिन भारत के लिये एक नव युग के निर्माण का दिन था जब स्वामी दयानन्द ने एक ब्राह्मण संन्यासी होकर भी सैकड़ों वर्षों से ताला में बन्द वेदों को मनुष्य मात्र के पढ़ने के अधिकार का प्रतिपादन किया।

स्वामी दयानन्द जी ने तो आर्य समाज के नियमों में एक नियम ही बना दिया कि वेद का पढ़ना पढ़ाना परम धर्म है। आज के दिन दर्जनों कन्या गुरुकुलों में हजारों छात्रायें वेद पढ़ रही हैं और सैकड़ों वेद विद्या की गम्भीर विदुषियाँ, आचार्याएँ वेद पढ़ा रही हैं।

प्राचीन काल में वेद विदुषी महिलाएँ - ऋषि मन्त्रद्रष्टा होते हैं, ऋषिकायें भी मन्त्रद्रष्टा होती हैं । लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि कई इतिहास प्रसिद्ध ऋषिकायें हैं।सोलह ऋषिकाएँ ऋग्वेद में हैं। 
संस्कारों में स्त्रियाँ मन्त्र पाठ करती थीं “इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्” ऐसा कर्मकाण्ड के ग्रन्थों में निर्देश है अतः स्त्री का मन्त्रपाठ स्वतः सिद्ध है।

कन्याओं का उपनयन - कन्याओं का भी उपनयन होता था और आज भी बहुत सारे वैदिक परिवारों में कन्याओं का उपनयन होता है और स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पहनती हैं । सन्ध्या, अग्निहोत्र करती हैं वेदपाठ भी करती हैं । 

निर्णय सिन्धु तृतीय परिच्छेद में लिखा है -

"पुराकल्पेतु नारीणा नौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्ययनंच वेदानां भिक्षाचर्यं तथैव च॥
इसमें यज्ञोपवीत और वेदों का अध्ययन दोनों का विधान है।

हारीत संहिता में दो प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख हैं - 
(१) ब्रह्मवादिनी 
(२) सद्योवधू ।

ब्रह्मवादिनी - तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनं अग्निबधनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षा इति।

पराशर संहिता के अनुसार ब्रह्मवादिनी स्त्रियों का उपनयन होता है, वे अग्नि होत्र करती हैं, वेदाध्ययन करती हैं और अपने परिवार में भिक्षावृत्ति करती हैं।

सद्योबधू- ‘सद्योबधूनां तू उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः।' - सद्योवधू वे स्त्रियाँ हैं जिनका विवाह के समय उपनयन करके विवाह कर दिया जाता है। जैसा आजकल पुरुषों के विवाह में कई जगह होता है।

वेद में उपनीता स्त्री - ऋग्वेद के मण्डल १० सूक्त १०९ मन्त्र ४ में लिखा है - “भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता” यहाँ उपनीता जाया बहुत सुस्पष्ट है।

आचार्या और उपाध्याया वे स्त्रियाँ है, जो स्वयं पढ़ाती हैं नहीं तो आचार्य की स्त्री आचार्यानी और उपाध्याय की स्त्री उपाध्यायानी कहलाती हैं।

शंकर दिग्विजय में मण्डन मिश्र की पत्नी भारती देवी के विषय में लिखा है - 
'शास्त्रणि सर्वाणि षडवेदान् काव्यादिकान्वेत्ति यदत्र सर्वम्।' 
इसमें भारती देवी के षडङ्गवेदाध्ययन की बात सुस्पष्ट है।

माता कौशल्या का अग्निहोत्र - अग्निहोत्र में वेदमन्त्र बोले जाते हैं और कौशल्या अग्निहोत्र करती थी बाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड अः २०-१५ श्लोक में द्रष्टव्य है -

साक्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा। 
अग्नि जहोतिस्म तदा मन्त्रवत्कृतमज्जला।। 
कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने हुए व्रत पारायण होकर प्रसन्न मुद्रा में मन्त्र पूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी। इसी प्रकार अयोध्या काण्ड आ० २५ श्लोक ४६ में कौशल्या के यथाविधि स्वतिवाचन का भी वर्णन है।

माता सीता की सन्ध्या - लंका में महाबली हनुमान माता सीता को खोजते हुए अशोक वाटिका में गये किन्तु उन्हें माता सीता न मिली । हनुमान ने वहाँ एक पवित्र जल वाली नदी को देखा । हनुमान जी को निश्चय था कि यदि माता सीता यहाँ होगी तो सन्ध्या का समय आ गया है और व यहाँ सन्ध्या करने के लिये अवश्य आयेंगी। सुन्दरकाण्ड अ० १४, श्लोक ४९ में लिखा है -

सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदींचेमांशुभजला सध्यार्थ वरवर्णिनी॥ 
अर्थात् वर वर्णिनी सीता इस शुभ जल वाली नदी पर सन्ध्या करने के निमित्ति अवश्य आयेंगी।

इस छोटे से प्रयास में हमने साक्षात् वेद वचन उद्धृत करके यह प्रमाण दे दिया है कि वेद मनुष्य मात्र के लिये हैं और 'धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' धर्म के लिये वेद परम प्रमाण हैं । 

किसी वेद संहिता में या वैदिक ऋषि कृत ग्रन्थ में स्त्रियों के वेद पढ़ने का निषेध नहीं है । वेदों की लोपामुद्रा, गार्गी, भारती आदि स्त्रियाँ विदुषी थीं और वेद पढ़ी थीं। आज भी वेद पढ़ती हैं ।
- प्रो० उमाकान्त उपाध्याय